Thursday, November 29, 2012

ख्वाहिशों के दायरें 

 सन्नाटें दूर तलक केवल सुनाई देते रहते हैं 
मेरे ख्वाहिशों के दायरे में अब कोई नहीं रहता 
एक मजारे माहौल सा तैयार हो गया है 
वहाँ दफ्न है हर रूह की  जिंदा कोई नहीं रहता।

यहाँ हर कोने में कोई न कोई लम्हा कैद है 
कभी  जाता हूँ तो उन सब से मैं मिल के आता हूँ 
कुछ टूटे हैं, कुछ बिखरे हैं, कुछ बीमार बैठे हैं 
बेफिक्र है माली, उन्हें अब कोई नहीं चुनता।

कुछ दूर आगे खाली एक  मैदान रखा है
वहाँ मैं चीखता हूँ, डाटता हूँ, रो भी लेता हूँ
आवाजें दूर तलक जाके वैसे ही लौट आती हैं 
जो मैं कहता रहता हूँ उसे अब कोई नहीं सुनता।

वही पास में  झरने सा बहता वक़्त जा रहा है 
दावा है जिसका वो यहाँ सब सींच जाएगा 
कोई कैसे समझाए उसे अब उसकी बेबसता 
मिटते हैं छाप रेतों से, निशां कोई नही धुलता .

सन्नाटें दूर तलक केवल सुनाई देते रहते हैं 
मेरे ख्वाहिशों के दायरे में अब कोई नहीं रहता


Sunday, August 19, 2012



आग़ाज़ ...


कभी प्रथम किरण सी उज्जवल हो,
कभी शाम की रंगों सी बोझल,
कभी मस्त पवन सी चंचल हो,
कभी युग से जैसे कोई ठहरा पल,

कभी आसमान सी अनंत हो तुम,
कभी सब में बस्ता एक छोटा मन,
कभी लम्हों सी हो भिन्न भिन्न,
कभी सदियों लम्बा एक ही जीवन,

कभी प्रेमी सी मुझको लुभाती हो,
कभी और तरह से भाति हो,
कभी शोर सी हो तुम सबके लिए,
कभी मेरी बस बन जाती हो ...

क्यूँ वक़्त सी रहती हो बहती,
कभी याद सी ठहरी रहती हो,
कभी खुसबू जैसी बिखरी बिखरी,
कभी खौफ के जैसी सिमटी हो,

एक ध्वनि हो या एक मौन हो तुम,
अब कैसे कहू  की कौन हो तुम,
इन सब्दों में रंग्दू कैसे ,
जब अलंकार के परे हो तुम।.. जब अलंकार के परे हो तुम।..



..

अंजाम...





मैं वक़्त के लम्हों के हर एक पल से तुम्हारी यादें मिटा रहा हूँ ,

ना जाने ये कैसी कोशिश है मेरी, ना जाने की इसका अंजाम क्या है,

मैं तो बस अपनी इन रूकती रघों को फिर जीने का मकसद बता रहा हूँ.

मैं वक़्त के लम्हों के हर एक पल से तुम्हारी यादें मिटा रहा हूँ।



मैं जानता हूँ ये आंसान नहीं है 

अतीत का हर पल मिटाना 

मैं जानता हूँ ये भी मुमकिन  नहीं है 

खुद से ही खुदको परे हटाना 

फिर क्यूँ मैं सागर के तह तक डूबे, हर इट पत्थर को जा हटा रहा हूँ 

मैं क्या कहूँ...  तुम समझ रही हो...



की  मैं तो बस अपनी इन रूकती रघों को फिर जीने का मकसद बता रहा हूँ.

मैं वक़्त के लम्हों के हर एक पल से तुम्हारी यादें मिटा रहा हूँ।




ना तेरे जाने का गम है कोई ,

दिल टूटने का है दर्द मुझको

तुमसे ही कोई सिकवा है करनी

खुद से ही कोई गिला है मुझको 
ये वो सच हे मेरा जिससे मैं दिल को, दिन रात युही बहला रहा हूँ

मैं क्या कहूँ...  तुम समझ रही हो...


की  मैं तो बस अपनी इन रूकती रघों को फिर जीने का मकसद बता रहा हूँ.

मैं वक़्त के लम्हों के हर एक पल से तुम्हारी यादें मिटा रहा हूँ।



जो चाहता था, वो हो पाया,

वो हो ना पाया या कर ना पाया,

तेरी जिद थी? मेरा गुरूर था?

सब जल गया कुछ बच ना पाया.
इन उलझनों में उलझ गया हूँ , और उलझे ही रहना चाहता हूँ 
मैं क्या कहूँ...  तुम समझ रही हो...


की  मैं तो बस अपनी इन रूकती रघों को फिर जीने का मकसद बता रहा हूँ.

मैं वक़्त के लम्हों के हर एक पल से तुम्हारी यादें मिटा रहा हूँ।