Sunday, August 19, 2012



आग़ाज़ ...


कभी प्रथम किरण सी उज्जवल हो,
कभी शाम की रंगों सी बोझल,
कभी मस्त पवन सी चंचल हो,
कभी युग से जैसे कोई ठहरा पल,

कभी आसमान सी अनंत हो तुम,
कभी सब में बस्ता एक छोटा मन,
कभी लम्हों सी हो भिन्न भिन्न,
कभी सदियों लम्बा एक ही जीवन,

कभी प्रेमी सी मुझको लुभाती हो,
कभी और तरह से भाति हो,
कभी शोर सी हो तुम सबके लिए,
कभी मेरी बस बन जाती हो ...

क्यूँ वक़्त सी रहती हो बहती,
कभी याद सी ठहरी रहती हो,
कभी खुसबू जैसी बिखरी बिखरी,
कभी खौफ के जैसी सिमटी हो,

एक ध्वनि हो या एक मौन हो तुम,
अब कैसे कहू  की कौन हो तुम,
इन सब्दों में रंग्दू कैसे ,
जब अलंकार के परे हो तुम।.. जब अलंकार के परे हो तुम।..



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