Thursday, November 5, 2009

Ek Soch.....



बैतरनी के तट पे खड़ा, मैं खुद को उपाधि क्या दूंगा?

एक रोज भी ये दिन आएगा, मैं यादों में बस जाऊंगा,
अपने अनुभव की गठरी, ले ईशवर में मिल जाऊंगा,
उस रोज निभंधित जीवन का सारांश न जाने क्या दूंगा,
बैतरनी के तट पे खड़ा, मैं खुद को उपाधि क्या दूंगा?

जब मेरे कर्मों की बातें मुझसे ही पूछे जायेंगे,
तब मैं मौन के साथ खड़ा, पलकों पे भार उठाऊंगा,
जब चित्रगुप्त के पन्नो से इतिहास दुबारा झाकेगा,
मैं तट पर के हलकोरों से फिर अपनी खैर मानूँगा,

जब लाज छोढ़ कर जायेगी, और मौन भी खैर मनायेगा,
तक उन प्रशनो के उत्तर सा, मैं इस स्याही को क्या दूंगा,
बैतरनी के तट पे खड़ा, मैं खुद को उपाधि क्या दूंगा?

जब मेरे डगमग कदमो का इतिहास अस्तित्व में आएगा,
ये माया जाल में फसा हुआ प्राणी क्या कहने पायेगा,
क्या सीखा तुमने क्या सिखा गए,
जब ये सब उठ उठ पूछेंगे,

अपने अपराधो की स्वयं खड़ा,
मैं उनको गवाही क्या दूंगा,
बैतरनी के तट पे खड़ा, मैं खुद को उपाधि क्या दूंगा?






No comments:

Post a Comment